मराठी साहित्य सम्मेलन में राजनीति का रंग: क्या साहित्य नेताओं की भीड़ से प्रभावित हो रहा है?
पुणे में हुए विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन में राजनीतिक नेताओं की भीड़ ने साहित्य जगत में सवाल खड़े किए हैं।
क्या मराठी साहित्य सम्मेलन में राजनीति का प्रभाव बढ़ रहा है?
पुणे में हुए विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्रियों और कई मंत्रियों की मौजूदगी ने एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। क्या साहित्य अब राजनीति का अखाड़ा बनता जा रहा है? इस सवाल ने सम्मेलन में चर्चा का विषय बना हुआ है।
इस सम्मेलन का आयोजन महाराष्ट्र सरकार के मराठी भाषा विभाग और विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था। मराठी भाषा को 'अभिजात भाषा' का दर्जा मिलने के बाद यह पहला विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन था। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने खुद सम्मेलन का उद्घाटन किया, उनके साथ उपमुख्यमंत्री अजीत पवार और एकनाथ शिंदे भी मौजूद रहे। उद्योग मंत्री उदय सामंत, नगर विकास राज्य मंत्री माधुरी मिसाल, सांसद श्रीरंग बारणे और विधायक सिद्धार्थ शिरोले जैसे कई अन्य नेता भी मंच पर दिखाई दिए।
नेताओं की मौजूदगी का कारण
राजनीतिक नेताओं की इतनी बड़ी संख्या से साहित्य जगत में सवाल उठ रहे हैं। क्या यह मराठी भाषा को 'अभिजात भाषा' का दर्जा मिलने का जश्न है, या फिर राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति का एक और तरीका? कुछ लोगों का मानना है कि सरकार का सम्मेलन में इतना बड़ा योगदान साफ़ तौर पर राजनीतिक है। वहीं, दूसरों का कहना है कि सरकार का साहित्य को समर्थन करना एक सकारात्मक पहलू है। यह पहला विश्व मराठी साहित्य सम्मेलन था जिसके उद्घाटन में इतने नेता शामिल हुए।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अपने भाषण में मराठी भाषा को अभिजात भाषा का दर्जा मिलने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया। इस पर उपमुख्यमंत्री अजीत पवार और एकनाथ शिंदे ने भी मोदी की प्रशंसा की। इस घटनाक्रम ने राजनीति और साहित्य के बीच की रेखाओं को और धुंधला कर दिया है। क्या यह सिर्फ एक संयोग है या फिर कुछ और?
साहित्य और राजनीति का मिश्रण
साहित्यिक हस्तियों ने भी इस सम्मेलन में भाग लिया, जिनमें वरिष्ठ साहित्यकार और 'साहित्य भूषण' पुरस्कार से सम्मानित मधु मंगेश कर्णिक, पूर्व साहित्य सम्मेलन अध्यक्ष लक्ष्मीकांत देशमुख, सदानंद मोरे, रविंद्र शोभणे, राजा दीक्षित और साहित्य महामंडल की अध्यक्ष उषा तांबे शामिल थीं। लेकिन, मंच पर नेताओं की उपस्थिति ने साहित्यिक चर्चा को कुछ हद तक कम कर दिया।
सम्मेलन स्थल पर नेताओं के समर्थकों और पार्टी कार्यकर्ताओं की भी भारी भीड़ थी। बड़े-बड़े होर्डिंग्स नेताओं की तस्वीरों से सजे हुए थे, जिससे ऐसा लग रहा था कि कोई साहित्य सम्मेलन नहीं बल्कि राजनीतिक रैली चल रही है। साहित्य प्रेमियों के बीच इस घटना को लेकर चर्चा जारी है। क्या साहित्य अब राजनीति के प्रभाव से मुक्त रह पाएगा?
आगे का रास्ता
यह एक गंभीर सवाल है कि मराठी साहित्य को आगे किस दिशा में जाना चाहिए। क्या यह राजनीति से मुक्त होकर अपने मूल स्वरूप को बनाए रख पाएगा, या फिर राजनीति का प्रभाव इसे लगातार प्रभावित करता रहेगा? यह समय ही बताएगा कि साहित्य और राजनीति का यह मिश्रण भविष्य में साहित्य जगत के लिए कितना लाभदायक या हानिकारक साबित होगा।
यह घटना साहित्य जगत के लिए एक चिंता का विषय है। क्या साहित्य अपनी अस्मिता को बचा पाएगा? या फिर यह राजनीति की भेंट चढ़ जाएगा? भविष्य में सम्मेलन आयोजकों और साहित्यकारों को इस बारे में सोचने की जरूरत है कि साहित्य को राजनीति से कैसे अलग रखा जा सकता है।
निष्कर्ष
मराठी साहित्य सम्मेलन में राजनीति का बढ़ता प्रभाव एक गंभीर मुद्दा है जिस पर विचार करने की आवश्यकता है। क्या साहित्य अपनी कलात्मकता और स्वतंत्रता बनाए रख पाएगा या राजनीति के दबाव में आ जाएगा, यह समय ही बताएगा।